Sunday 10 April 2016

में हु

                 में हु   

मोहबत जब अपनी बया न कर सका ,
हस्ता क्यों न में रोता जार-जार हु,

पलकों से अश्क न रुके ,
देख आंसू भी बेक़रार हु ,

वो बुझती शमा भी है तो क्या ,
में जीता बेक़रार हु ,

दिल में है तो नाम बस उनका ,
में पीता  बेशुमार हु ,

मेरी मोहबत को न नापना ,
में उनकी यादों का शिकार हु,

मुस्कराहट है तो बस उनसे ,
में जीया बेक़रार हु,

आँचल संभालने रखना अपना ऐ हमनवा ,
में बढ़ता हर कदम जैसे रेहगुजार हु,

लिख लु में हर बात उनकी ,
में उनकी यादों में फरार हु,

बस अब जीना दो मुझे ,
में जो हु उन साँसों की गुहार हु।

कवी निशित लोढ़ा 

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