Monday 1 August 2016

ढूंढती निगाहे

हज़ारो चहेरो में कही एक चहेरा में ढूंढता,
में बन बंजारा क्यों न घुमता,

मुद्दत बाद वो याद आये मुझे,
तो आंसू इन नयन के कैसे कही में रोकता,

वो कहते थे मुझे तू अपनी मंज़िल तलाशना,
में उनकी कही बातें फिर कैसें न सुुनता,

आज याद करता हु में उन्हें उनकी बातों के संग,
वो कहे शब्द कैसे में भूलता,

आज दूर है वो मुझसे,में हु कही उनसे,
यादों के संग क्यों ये ख्वाब में बुनता,

आज एक राह चला हु, मुस्कुराता एक मंज़र पर,
चल फिर एक इंसान खुद में उनसा क्यों नही ढूंढता, न जाने क्यों नही ढूंढता।

कवी निशित लोढ़ा
शुभरात्री

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