Monday, 25 April 2016

जाने में कौन था

      जाने में कौन था

सवालो से घिरा ,खुद में उलझा ,
मंज़िल को ढूंढता, जाने में कौन था ,

मोहबत कर बेहटा ,प्यार में रहेता ,
सपनों में खोता उनके, जाने में कौन था ,

लिखता में रहता ,जो मन मेरा कहता ,
पन्ने पे थी कहानी मेरी , जाने में कौन था ,

जवाबो की तलाश थी,मंज़िल मेरे पास थी ,
बस अकेला राही था में, सोचता यही जाने में कौन था ,

वो पल भी हसीन थे ,जब सब मेरे करीब थे ,
हस्ता मुझमे उस वक़्त न जाने वो कौन था ,

इंतज़ार किया मैंने ,जीना भी सीखा यादों के सहारे ,
न जाने उस चहेरे के पीछे वो चहेरा कौन था। 

कवि निशित लोढ़ा  

 


Sunday, 10 April 2016

ज़िन्दगी

      ज़िन्दगी 

ज़िन्दगी तुझे जीने के लिए ये चुनाव क्यों ,
तरजीह क्यों हर पहल पे ,रास्तों में ये घुमाव क्यों ,

हर तरफ जहां सवाल है ,वहां तेरा भूचाल क्यों ,
ऐ ज़िन्दगी तुझसे आशा है ,तो मन में ये बवाल क्यों ,

क्यों मुश्किल है मेरा फैसला लेना ,जब जीने का जवाब तुम ,
धड़कन धड़कती है दिल कि,पर साँसों में हो जैसे ख्याल तुम,

ज़िन्दगी तुम हस्सी हो मुस्कराहट हो तुम जीने की चाहत हो ,
पर तुम ज़िंदा हो मुझमे जैसे खुदमे अफ़राद हो ,

जीने का नाम है ज़िन्दगी ,मुमकिन हर राह में फिराक है ज़िन्दगी ,
फिर क्यों है मुझमे जैसे कोई अफसाद है ज़िन्दगी ,

आशा की किरण दिखी जहां, वहां मेरी कहानी का जवाब है ज़िन्दगी ,
लिखे तकते मैंने हज़ार ,पर मुस्कराहट है जैसे जहान है ,ऐ ज़िन्दगी। 

कवी निशित लोढ़ा 




मोहबत ऐ गुनाह

मोहबत ऐ गुनाह

लाख तुम ने किये वादें ,लाख हमने ऐतबार किया ,
तेरी राहों में हर बार रुककर मैंने तेरा ही इंतज़ार किया ,
अब न मांगेंगे तुझसे ज़िन्दगी या रब ,
ये गुनाह किया हमने जो एक बार किया।


में हु

                 में हु   

मोहबत जब अपनी बया न कर सका ,
हस्ता क्यों न में रोता जार-जार हु,

पलकों से अश्क न रुके ,
देख आंसू भी बेक़रार हु ,

वो बुझती शमा भी है तो क्या ,
में जीता बेक़रार हु ,

दिल में है तो नाम बस उनका ,
में पीता  बेशुमार हु ,

मेरी मोहबत को न नापना ,
में उनकी यादों का शिकार हु,

मुस्कराहट है तो बस उनसे ,
में जीया बेक़रार हु,

आँचल संभालने रखना अपना ऐ हमनवा ,
में बढ़ता हर कदम जैसे रेहगुजार हु,

लिख लु में हर बात उनकी ,
में उनकी यादों में फरार हु,

बस अब जीना दो मुझे ,
में जो हु उन साँसों की गुहार हु।

कवी निशित लोढ़ा 

मोहबत के दो लफ्ज़

मोहबत के दो लफ्ज़

 मन में एक आरज़ू थी की वो मेरा दीदार करे ,
में देर से जाऊ तो वो मेरा इंतज़ार करे ,
में जुल्फ सवारू अपने हातों से ,
तो  मुस्कुराए और शर्मा मेरी मोहबत का इकरार करे


Saturday, 2 April 2016

मोहबत्त का मौसम फिर आगया


मोहबत्त का मौसम फिर आगया 


 ज़बान पे न जाने क्यों उनका नाम आगया ,
बीतें पलों की कहानी के खुले जो पन्ने ,
तो आँखों के सामने फिर वोही एक सवाल आगया ,

क्यों आये वो फिर ज़िन्दगी में ये न पूछो, 
मेरे लिए तो जैसे ज़हेन में भूचाल आगया ,
मोहबत्त, इश्क़ जहां भूला चुके हम  ,
वही दूसरे सिरे पे उनके प्यार का पैगाम आगया,

लबो पे थे मेरे नाम हज़ार ,पर हर चहेरे में उनका चहेरा नज़र आगया ,
 कैसे भुलाऊ अब उन्हें ,
देखो मुझे नशे में कभी ,में उनके ही नाम का जाम लगा फिर आगया ,

गीले-शिकवे बहुत है मुझे उनसे ,
पर कहु क्या मेरा तो ये दिल नजाने कब और कैसे उनपे आगया ,
कोई सम्भाल सके मुझे तो सम्भालो,
देखो ये आशिक़ फिर आशिकी करने आगया ,

अब कैसे समझाये इस दिल को,
यह जैसे खुले आसमान में उड़ते ख्वाब बनाता चला गया ,
शायद अब ये फिर तैयार है ,चल मोहबत करते है ,
क्या पता शायद मौसम ऐ रूख उनका हमारी और आगया। 
  
कवि-निशित लोढ़ा