Sunday 24 November 2019

लफ्ज़ो के घूँट

लफ्ज़ो के घूँट 

 
अलफ़ाज़-ऐ-शब्दो से घिरा हुआ,
वो पल ज़िन्दगी के पिरोये जा रहा था,
जिस वक़्त में होश संभाला,बस फिर,
में लफ़्ज़ों के घूँट पीया जा रहा था,

नशा बहुत था उस आलम का,
जिस कहानी को में जीया जा रहा था,
पल पल में मिलते बदलते लोग मुझे,उस वक़्त में,
में लफ़्ज़ों के घूँट पीया जा रहा था,

ज़िन्दगी के अफ़साने बहुत थे यार,
में उन्हें हँसता-रोता ,जीता-हारा,
बस गुनगुनाता चलता चला जा रहा था,
में लफ़्ज़ों के घूँट पीया जा रहा था,

सर्द-गर्मी सिर्फ मौसम की न थी,
दर्द जिस्म के जो लिया जा रहा था,
चहेरे पे फिर भी वो मुस्कान ले,
में लफ़्ज़ों के घूँट पीया जा रहा था,

कहानी सिर्फ मेरी ना थी उस जाम में,
फिर भी ,किरदार अपना निभाये जा रहा था,
अपना वक़्त अदा कर के,
में लफ़्ज़ों के घूँट पीया जा रहा था,

मेहखानो में फिर अपनी चर्चा बहुत हुई,
वो नशा नही ,जो चढ़ पा रहा था,
बस किताब-ऐ-स्याही ले कर वहा,
में लफ़्ज़ों के घूँट पीया जा रहा था।।

©nishhjain

Tuesday 12 November 2019

समझा न सके

समझा न सके 


खड़े थे इंतज़ार में ,
तुम आ न सके,
बेताब दिल को,
हम भी समझा न सके ,

क्यों ऐतबार था तुमसे इतना ,
की रहते थे सवाल बन ,
हम सवालो के जवाब को ,
अकेले, सुलझा न सके ,

ये कैसी कश्मकश में था ,
दिल ये हमारा ,
की दिल को समझा कर भी ,
हम मना न सके ,

लगता है इश्क़ ऐ वफ़ा ,
से पुरानी यारी है तुम्हारी,
तभी हम खुद को ,
इस दर्द में संभाल न सके ,

सुना है ,
बहुत आगे बढ़ गए आप  ,
ज़िन्दगी की दौड़ में ,
हम ये खेल न समझे कभी ,
और इस दिल को समझा न सके ,

अब बढे है, कुछ कदम हमारे,
ज़िन्दगी जीने की और,
पर यादों के सहारे भी ,
कितना चल पाएगे, ये खुद को हम समझा न सके।।

निश